Sunday, June 14, 2020

भाषा शिक्षण में सुनने और बोलने कि क्षमता

भाषा के माध्यम से मानव जीवन अर्थपूर्ण हुआ है। भाषा मानव जीवन को सरल और सहज बनाने में महत्वपूर्ण है। भाषा के माध्यम से व्यक्ति अपने विचार और भाव प्रकट कर सकता है। मानव ईश्वर की बनाई हुई अन्य रचनाओं में से श्रेष्ठ इसलिए है क्योंकि उसे भाषा कौशल का ज्ञान है।भाषा बौद्धिक क्षमता को भी व्यक्त करती है। भाषा एक ऐसी कला है जिसे अन्य कलाओं की भांति सीखा जा सकता है और उसमें निपुणता हासिल की जा सकती है।
भाषा को श्रवण एवमं वाचक द्वारा ग्रहण किया जा सकता है। भाषा में दिन-प्रतिदिन नित नए विकास होते रहते है। भाषा में चार प्रकार के कौशल होते है श्रवण कौशल, वाचिक कौशल, लेखन कौशल और पठन कौशल। श्रवण कौशल और वाचक कौशल, भाषा कौशल के प्रथम चरण में आते है।

श्रवण कौशल की भूमिका:

  • श्रवण कौशल का अर्थ है कानों द्वारा सुनना। इस प्रक्रिया में किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा कही गई बात को सुनते है और उसका भाव ग्रहण करते है। यह शिक्षा के आदान-प्रदान का महत्वपूर्ण भाग है। इसमें व्यक्ति कविता, कहानी, भाषण वाद-विवाद, वार्तालाप आदि का ज्ञान सुनकर ही प्राप्त करता है और उसका अर्थ भी ग्रहण करता है। यदि व्यक्ति की श्रवण इन्द्रियों में दोष है, तो वह न तो भाषा सीख सकता है और न अपने मनोभावों को व्यक्त कर सकता है। अत: उसका भाषा ज्ञान शून्य के बराबर ही रहेगा। बालक सुनकर ही अनुकरण द्वारा भाषा ज्ञान अर्जित करता है। श्रवण कौशल भाषा के विकास का आधार है इसमें महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाता है।
  • श्रवण कौशल के माध्यम से छात्र शब्दों का सही उच्चारण सीखता है। जब ब्यक्ति किसी शब्द को सुनता है और समझता है तब ही वह उस शब्द से संबंधित सही अर्थ को समझता है। व्यक्ति शब्दों का सही उच्चारण कर रहा है या नहीं यह श्रवण कौशल के माध्यम से साफ होता है। इसके परिणामस्वरूप उसके भाषा सम्बंधी कौशल में विकास होता है।
  • श्रवण कौशल में व्यक्ति रोज नए शब्दों को सुनता है और अपने भाषायी ज्ञान में विकास करता है। इस कौशल से व्यक्ति अपने शब्दकोश में वृद्धि करता है जिसके माध्यम से उसके भाषा कौशल में विकास होता है।
  • सुनकर व्यक्ति अधिक से अधिक ज्ञान अर्जित कर सकता है, यह ऐसी प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति दिन-प्रति दिन बिना किसी रूकावट के ज्ञान प्राप्त कर सकता है और उस ज्ञान को अपने विवेकानुसार प्रयोग कर सकता है। छात्र रेडियो, मोबाइल, टीवी, ओडियो कैसेट जैसे उपकरणों के माध्यम से सामाजिक व्यवहारिक जानकारियां प्राप्त कर सकता है।
  • सुनने की प्रक्रिया के माध्यम से व्यक्ति दूसरों के भावों, विचारों, अभिव्यक्तियों को ग्रहण कर सकता है। ध्वनि व्यक्ति के मस्तिष्क में एक छाप छोड़ती है जिससे उस विशेष शब्द से संबंधित ध्वनि व्यक्ति को स्मरण रह जाती है।

वाचिक कौशल की भूमिका:

  • बोलकर व्यक्ति अपनी अभिव्यक्ति, मनोभावों को प्रकट करता है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति बोलकर लोगों से संवाद स्थापित करता है। साथ ही संचार की प्रक्रिया पूर्ण होती है। वाचिक कौशल में निपुणता से छात्र मे आत्मविश्वास उत्पन्न होता है जो कि शिक्षण और बच्चे के सम्पूर्ण विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है।
  • वाचिक कौशल से यह पता लगाया जा सकता है कि शिक्षण प्रक्रिया में कोई त्रुटि तो नहीं है। वाचिक कौशल से मूल्यांकन प्रक्रिया में सहायता मिलती है। इसके माध्यम से अध्यापक छात्र की भाषा से संबंधित त्रुटियों का पता लगा सकता है। और शिक्षण के दौरान उन त्रुटियों को दूर करके छात्र को निपुण बना सकता है।
  • आधुनिक युग में समाज में अपनी छवि को बनाने के लिए और स्वयं को प्रस्तुत करने के लिए आत्मविश्वास का होना बहूत जरूरी है। यह आत्मविश्वास छात्र में वाचिक कौशल में निपुणता से प्राप्त होता है। इससे छात्र झिझक को खत्म कर आगे कदम बढ़ाता है। जब तक छात्र अपने विचार अभिव्यक्त करना नहीं सिखता है तब तक उसमें भाषा का विकास नहीं होता। वाचिक कौशल में कक्षा में ही सुधार किया जाता है। कक्षा में छात्र संकोच समाप्त करके बोलना आरम्भ करता है और विभिन्न विषयों पर वाद-विवाद करता है। जिससे उसका शिक्षण विकास होता है।
  • बोलने के माध्यम से छात्र भाषा प्रवाह में प्रवीणता और निपुणता हासिल करता है। भाषा में उसकी दक्षता और मजबूत होती है। भाषा विकास में बोलने का काफी महत्व है। भाषण, वाद-विवाद प्रतियोगिता, प्रश्नोत्तरी के माध्यम से शिक्षण प्रक्रिया को सुदृढ़ बनाता है। यह बालक को मौखिक अभिव्यक्ति के लिए प्रेरित करता है जो उसके भाषा विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भाषा का विकास प्रतिदिन होता है यदि बोलने का कौशल छात्र में विकसित नहीं होता तो इस स्थिति में सीखने की प्रक्रिया बहुत धीमी हो जाती है।

भाषा शिक्षण के सूत्र और विधियाँ

दूसरों को सिखाने के लिए दिशा निर्देश देने तथा अन्य प्रकार से उन्हें निर्देशित करने की प्रक्रिया को शिक्षण कहते हैं। यह एक उद्देश्य निर्देशित क्रिया होती है, जिसमें सीखने के लिए सही मार्गदर्शन, दिशाबोधन और उत्साह द्वारा प्रेरित किया जाता है। यह एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें शिक्षक ज्ञान देने के लिए अनेक क्रियाएँ करता है और छात्रों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाने का प्रयास करता है।
ज्ञान देने की यही क्रियाएँ शिक्षण सूत्र या विधियाँ कहलाती हैं। आमतौर पर एक ही विषय या चीज़ को पढ़ाने के बहुत से तरीके हो सकते हैं, जिनके द्वारा एक शिक्षक छात्रों के मानसिक स्तर, उनकी आवश्यकताओं और शिक्षण की आवशयक्ताओं को ध्यान में रखते हुए ज्ञान देता है। इसलिए ही शिक्षण को एक कौशलात्मक क्रिया कहते हैं, क्यूंकि यह शिक्षक का कौशल ही है जिसके द्वारा वह सही समय पर सही विधि या सूत्र द्वारा छात्रों को सही शिक्षा देता है।

सही और सार्थक शिक्षण के लिए कुछ शिक्षण सूत्र और विधियाँ इस प्रकार से हैं –

  • ज्ञात से अज्ञात की ओर - प्राथमिक स्तर यह विधि सबसे अधिक लोकप्रिय होती है। छोटे बच्चों को शिक्षण के प्रति उत्साहित और सक्रीय बनाने के लिए शिक्षक सदैव वहीं से प्रारम्भ करता है, जो बच्चों के अनुभव क्षेत्र में आती हैं और उन्हें पता होती हैं। जैसे - लिखना या पढ़ना सिखाने के लिए चित्रों का सहारा लिया जाता है। बच्चे आसपास देख कर चित्र पहचान जाते हैं कि यह पंखा है और उसका उच्चारण भी जानते हैं। उसी से उन्हें 'प' और 'ख' वर्णों के स्वरुप और लिखाई से परचित कराया जाता है।
  • मूर्त से अमूर्त की ओर - इस सूत्र को ‘‘स्थूल से सूक्ष्म की ओर’ या 'प्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष की ओर' भी कहा जाता है। स्पष्ट रूप से जो चीज़ आप सामने देख सकते हैं, उसी से छिपी हुईं चीज़ या ज्ञान के बारे में सीखना अधिक सरल हो जाता है। माॅडल, चार्ट आदि के सहारे किसी वस्तु का वर्णन करना सरल होता है, क्यूंकि कोई भी घटना, वस्तु, चित्र या लिखित वस्तु सामने देखकर वो मस्तिष्क पर अधिक प्रभाव डालता है, समझने में सरल लगता है और लम्बे समय तक स्मरण भी रहता है।
  • सरल से जटिल की ओर - वैसे तो यह सूत्र/विधि हर स्तर पर उपयोगी सिद्ध होती है, परन्तु प्राथमिक स्तर पर और कोई नयी चीज़ सिखाने हेतु काफी लाभदायक होती है। इसमें शिक्षक विषय के सरल भाग से प्रारम्भ कर कठिन भाग तक जाता है। जैसे - लेखन शिक्षण सदैव आदि-तिरछी रेखाओं से शुरू होता है, वर्णों से शब्दों तक होते हुए वाक्यों तक पहुँचता है। रेखाएं बनाना सरल होता है, फिर वर्ण सिखाये  जाते हैं, उन्हें जोड़कर सार्थक अर्थ वाले शब्द सिखाये जाते हैं।
  • विशिष्ट से सामान्य की ओर - यह सूत्र माध्यमिक स्तर से आगे के स्तरों पर अधिक प्रभावपूर्ण रहता है। किसी विशेष वस्तु के बारे में जानकार उससे जुड़ी अन्य सामान्य बातों का ज्ञान लेना अधिक सरल और रुचिकर हो जाता है। जैसे - पंखे के बारे में सभी जानते हैं और यह एक विशेष प्रकार की मशीन है। पंखे से प्रारम्भ कर शिक्षक विद्युत् के महत्त्व के बारे में और विद्युत् से चलने वाली कई और मशीनों के बारे में भी जानकारी दे सकता है। छात्र भी इस प्रकार बहुत रूचि लेकर समझने का प्रयास करते हैं।
  • पूर्ण से अंश की ओर - इस सूत्र के अनुसार बच्चों को जो कुछ भी सिखाया जाए, उसे पहले पूर्ण रूप में सामने रखा जाए और बाद में उसके हर अंश को स्पष्ट रूप से स्पष्ट किया जाए। इससे बच्चों में आगे पढ़ाये जाने वाले विषय के प्रति उत्साह और रूचि जागृत होती है। जैसे - पाठ के मूल भाव के बारे में बातकर ही पाठ आरम्भ किया जाता है। इससे बच्चे मूल भाव से जोड़कर पाठ के हर अंश को सही से समझ भी पाते हैं। उसी प्रकार विज्ञान में हमारे शरीर के बारे में थोड़ी जानकारी देकर एक-एक करके शरीर के हर अंग कि जानकारी दी जाती है।
  • आगमन से निगमन की ओर - इस सूत्र के अनुसार अनेक उदाहरण देकर नियम निर्धारित किये जाते हैं। शिक्षक इस विधि का प्रयोग अनेक विषयों में करते हैं, जैसे व्याकरण आदि। उदाहरण के लिए - विभिन्न वाक्य लेकर उनमें किसी विशेष नाम बताने वाले शब्दों का चयन करने के लिए कहा जाए। फिर पुछा जाए कि इन से व्यक्तियों के नाम, वस्तुओं के नाम और स्थानों के नाम अलग किये जायें। अब बताया जाए कि नाम वाले शब्द संज्ञा कहलाते हैं और उसके अनेक प्रकार भी बताये जायें।
  • अनिश्चित से निश्चित की ओर - देखी हुई वस्तु के विषय में बालक अपनी सुविधा और आवश्यकता के अनुसार कुछ अनिश्चित विचार रखता है। इन्हीं अनिश्चित विचारों के आधार पर निश्चित एवं स्पष्ट विचार बनाये जाने चाहिये। अस्पष्ट शब्दार्थों से स्पष्ट, निश्चित तथा सूक्ष्म शब्दार्थों की ओर बढ़ा जाए। उदाहरण के लिए घटना वर्णन के आधार पर सभी छात्रों की राय जानी जाती है और फिर शिक्षक उसपर अपने स्पष्ट विचार रखता है की यह इस प्रकार हुआ, और इसका यही परिणाम होता है।
  • अनुभूति से तर्कयुक्त की ओर - इस सूत्र के अनुसार बच्चों को उनके अनुभवों के आधार पर सिखाने का प्रयास होता है, जिससे उन्हें सही व्यावहारिक ज्ञान रुचिपूर्ण तरीके से मिल सके। कक्षा में बच्चों से विभिन्न स्थितियों में हुईं अनुभूतियों पर चर्चा की जाती है ओर उस आधार पर शिक्षक उन्हें उससे सम्बंधित तर्क से अवगत कराता है।
  • विश्लेषण से संश्लेषण की ओर – उच्च स्तर पर प्रयोग होने वाला यह सूत्र कहता है कि एक बार शब्द, वाक्य भाव या अर्थ का विश्लेषण करके उसे छोड़ न दिया जाए, वरन् बाद में उनका संश्लेषण करके एक स्पष्ट सामान्य विचार बनाने की ओर छात्रों को उन्मुख या प्रोत्साहित किया जाए। विश्लेषण का अर्थ होता है हर पहलू कि जांच पड़ताल करना ओर निष्कर्ष पर पहुचंने का प्रयास करना। संश्लेषण का अर्थ होता है एक सही निष्कर्ष पर पहुंच कर उसे उस ओर सार्थक बनाने के लिए सही तर्क उसमें मिलाना या जोड़ना।
  • मनोवैज्ञानिक से तार्किक की ओर -  यह सूत्र इस बात पर ध्यान देता है कि पहले वह पढाया जाए जो छात्रों की योग्यता एवं रूचि के अनुकूल हो, तत्पश्चात विषय सामग्री के तार्किक क्रम पर ध्यान दिया जाए। इससे बच्चों में उत्साह, रूचि और सक्रियता आती है और वे सीखने में अधिक ध्यान केंद्रित कर पाते हैं। जैसे - बच्चों से उनका अनुभव पुछा जाए कि किस प्रकार उनके आसपास एक छोटा सा पौधा बड़ा होकर पेड़ बन जाता है और बाद में उससे सम्बंधित वैज्ञानिक तर्क दिए जायें। यह बच्चों के व्यावहारिक ज्ञान को बहुत प्रभावित करता है।
शिक्षण विधियों की सूची यहीं समाप्त नहीं होती। अपने शिक्षण और स्थितियों के अनुभव के आधार पर शिक्षण और कई अन्य प्रकार की विधियों का निर्माण और पालन भी कर सकते हैं, जिससे शिक्षण सही प्रकार से किया जा सके। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि शिक्षक परिस्थितयों को सही प्रकार से समझे, आवश्यकताओं को समझे और उस आधार पर सही तकनीक और विधि का चयन कर शिक्षण प्रक्रिया के उद्देश्य को पूर्ण करने का हर संभव प्रयास करे।

अधिगम और अर्जन

अधिगम का अर्थ:

अधिगम  शिक्षण प्रक्रिया का केंद्र बिंदु है, यह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। सामान्‍य अर्थ में अधिगम का अर्थ सीखना अथवा व्‍यवहार परिवर्तन है। ये व्‍यवहार परिवर्तन स्‍थायी तथा अस्‍थायी दोनों हो सकते हैं। किन्तु व्यवहार में अभिप्रेरणात्मक स्थिति में उतार चढाव से उत्पन्न अस्थायी परिवर्तन अधिगम नही होते है, कहने का अर्थ यह है कि अनुभवों एवं प्रशिक्षण के बाद बालक के व्‍यवहार में जो सुधार आता है उसी को अधिगम  कहते हैं। अधिगम की प्रक्रिया सभी जीवो में होती है किन्तु उनकी विशिष्टतायें भिन्न भिन्न होती है

अधिगम की परिभाषा:

क्रॉनबैक के अनुसार, “अनुभव के परिणामस्‍वरुप व्‍यवहार परिवर्तन ही अधिगम है।“
क्रो एवं क्रो के अनुसार, “आदतों, ज्ञान व अभिवृत्तियों का अर्जन ही अधिगम है।“
गिलफर्ड के अनुसार, “व्‍यवहार के कारण परिवर्तन ही सीखना है।“
उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि सीखने के कारण व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन आता है, व्यवहार में यह परिवर्तन बाह्य एवं आंतरिक दोनों ही प्रकार का हो सकता है। अतः सीखना एक प्रक्रिया है जिसमें अनुभव एवं प्रशिक्षण द्वारा व्यवहार में स्थायी या अस्थाई परिवर्तन दिखाई देता है।

अधिगम की विशेषताएँ

अधिगम की विशेषताएँ इस प्रकार है
  • यह एक सतत चलने वाली, समायोजित और समस्‍या-समाधान की प्रक्रिया है।
  • यह व्‍यवहार परिवर्तन की प्रक्रिया है।
  • यह एक मानसिक प्रक्रिया है।
  • यह एक विवेकपूर्ण, अनुसन्धान और सामाजिक प्रक्रिया है।
  • अधिगम सकारात्‍मक तथा नकारात्‍मक दोनों होता है।
  • अधिगम एक विकसित, सार्वभौमिक और सक्रिय प्रक्रिया है।

शिक्षण एवं अधिगम में सम्‍बन्‍ध:

शिक्षण एवं अधिगम एक-दूसरे से सम्‍बन्धित हैं शिक्षण बच्‍चे में अधिगम उत्‍पन्‍न करता है। अच्‍छे शिक्षण का अर्थ है ज्‍यादा – से ज्‍यादा अधिगम करना। प्रशिक्षण अधिगम का उद्दीपन, निर्देशन एवं प्रोत्‍साहन होता है। जहॉं शिक्षण को शिक्षा अधिगम प्रक्रिया का केन्‍द्र बिन्‍दु माना जाता है वहॉं अधिगम को शिक्षण के केन्‍द्रीय उद्देश्‍य माना जाता है।

शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया के भाग:

मैकडानल्‍ड के अनुसार, समस्‍त शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के चार मुख्‍य भाग होते हैं।
1. पाठ्यक्रम
2. अनुदेशन
3. शिक्षण                      
4. अधिगम

अधिगम के आयाम या विमाएं:

अधिगम के आयाम अनुदेशनात्मक योजना के लिए एक अधिगम केन्द्रित रुपरेखा या संरचना है जोकि संज्ञान और अधिगम क्षेत्र के नवीनतम शोध को व्यवहारिक कक्षागत कार्यनीतियों में परिवर्तित करते है, अधिगम आयाम की रूप-रेखा शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के लिए  निम्न परिप्रेक्ष्य में सहायक होती है।
  • शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में अधिगम को केन्द्रीय बनाये रखने में
  • अधिगम प्रक्रिया का अध्ययन करने में
  • पाठ्यक्रम, अनुदेशन और आंकलन की योजना बनाये रखने में
विद्यार्थियों के व्‍यवहार तथा अधिगम लक्ष्‍यों को तीन क्षेत्रों में बाँटा जा सकता है।
1. ज्ञानात्‍मक
2. भावात्मक
3. क्रियात्‍मक
शिक्षण के द्वारा जब विद्यार्थी में व्‍यवहार परिवर्तन होता है तो वह व्‍यवहार परिवर्तन अथवा अधिगम इनमें से किसी भी क्षेत्र के साथ सम्‍बन्धित हो सकता है। अधिगम के अनुसार शिक्षण भी तीन प्रकार का हो सकता है

शैक्षिणक उद्देश्‍य एवं अधिगम:

उद्देश्‍यशिक्षण विधिअधिगम
ज्ञानात्‍मक
भावात्‍मक
क्रियात्‍मक
भाषण
नाटकीकरण
प्रयोग
जानना
अनुभव करना
करना
तालिका से स्‍पष्‍ट है कि जैसा शिक्षण होगा विद्यार्थी में वैसा ही अधिगम होगा।

अधिगम के नियम:

ई॰एल॰ थार्नडाइक अमेरिका का प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक हुआ है जिसने सीखने के कुछ नियमों की खोज की जिन्हें निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया गया है, जिनमे तीन मुख्य नियम और पांच गौण नियम है । सीखने के मुख्य नियम तीन है जो इस प्रकार हैं ।
1. तत्परता का नियम: इस नियम के अनुसार जब व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए पहले से तैयार रहता है तो वह कार्य उसे आनन्द देता है एवं शीघ्र ही सीख लेता है। इसके विपरीत जब व्यक्ति कार्य को करने के लिए तैयार नहीं रहता या सीखने की इच्छा नहीं होती है,तो वह बेमन जाता है या सीखने की गति धीमी होती है।इस नियम से कार्य शीघ्र होता है|
2. अभ्यास का नियम: इस नियम के अनुसार व्यक्ति जिस क्रिया को बार-बार करता है उस शीघ्र ही सीख जाता है तथा जिस क्रिया को छोड़ देता है या बहुत समय तक नहीं करता उसे वह भूलने लगताहै। जैसे‘- गणित के सवाल हल करना, टाइप करना, साइकिल चलाना आदि। इसे उपयोग तथा अनुपयोग का नियम भी कहते हैं। इस नियम से कार्य कुशलता आती है
3. प्रभाव का नियम: इस नियम के अनुसार जीवन में जिस कार्य को करने पर व्यक्ति पर अच्छा प्रभाव पड़ता है या सुख का या संतोष मिलता है उन्हें वह सीखने का प्रयत्न करता है एवं जिन कार्यों को करने पर व्यक्ति पर बुरा प्रभाव पडता है उन्हें वह करना छोड़ देता है। इस नियम को सुख तथा दुःख या पुरस्कार तथा दण्ड का नियम भी कहा जाता है।

गौण के नियम:

1. बहु अनुक्रिया नियम: इस नियम के अनुसार व्यक्ति के सामने किसी नई समस्या के आने पर उसे सुलझाने के लिए वह विभिन्न प्रतिक्रियाओं के हल ढूढने का प्रयत्न करता है। वह प्रतिक्रियायें तब तक करता रहता है जब तक समस्या का सही हल न खोज ले और उसकी समस्यासुलझ नहीं जाती। इससे उसे संतोष मिलता है थार्नडाइक का प्रयत्न एवं भूल द्वारा सीखने का सिद्धान्त इसी नियम पर आधारित है।
2. मानसिक स्थिति या मनोवृत्ति का नियम: इस नियम के अनुसार जब व्यक्ति सीखने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहता है तो वह शीघ्र ही सीख लेता है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति मानसिक रूप से किसी कार्य को सीखने के लिए तैयार नहीं रहता तो उस कार्य को वह सीख नहीं सकेगा।
3. आंशिक क्रिया का नियम: इस नियम के अनुसार व्यक्ति किसी समस्या को सुलझाने के लिए अनेक क्रियायें प्रयत्न एवं भूल के आधार पर करता है। वह अपनी अंर्तदृष्टि का उपयोग कर आंषिक क्रियाओं की सहायता से समस्या का हल ढूढ़ लेता है।
4. समानता का नियम: इस नियम के अनुसार किसी समस्या के प्रस्तुत होने पर व्यक्ति पूर्व अनुभव या परिस्थितियों में समानता पाये जाने पर उसके अनुभव स्वतः ही स्थानांतरित होकर सीखने में मद्द करते हैं।
5. साहचर्य परिवर्तन का नियम: इस नियम के अनुसार व्यक्ति प्राप्त ज्ञान का उपयोग अन्य परिस्थिति में या सहचारी उद्दीपक वस्तु के प्रति भी करने लगता है। जैसे-कुत्ते के मुह से भोजन सामग्री को देख कर लार टपकरने लगती है। परन्तु कुछ समय के बाद भोजन के बर्तनको ही देख कर लार टपकने लगती है।

अधिगम प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कारक:

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारकों को निम्‍नलिखित वर्गो में विभाजित किया जा सकता है।
1. अधिगमकर्ता से सम्‍बन्धित कारक
2. अध्‍यापक से सम्‍बन्धित कारक
3. विषय-वस्‍तु से सम्‍बन्धित कारक
4. प्रक्रिया से सम्‍बन्धित कारक
अधिगमकर्ता से सम्‍बन्धित कारक: अधिगमकर्ता का शारीरिक एवं मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य कैसा है, उसकी क्षमता कितनी है, वह तीव्र या मंद बुद्धि का है, वह कितना जिज्ञासु है, वह क्‍या हासिल करना चाहता है, उसके जीवन का उद्देश्‍य क्‍या है,आदि  इन बातों पर उसके सीखने की गति, इच्‍छा एवं रुचि निर्भर करती है।
अध्‍यापक से सम्‍बन्धित कारक: अधिगम की प्रक्रिया को प्रभावित करने में शिक्षक की भूमिका महत्‍वपूर्ण होती है। अध्‍यापक का विषय पर कितना अधिकार है, यह शिक्षण कला में कितना योग्‍य है? उसका व्‍यक्तित्‍व एवं व्‍यवहार कैसा है, वह अधिगम के लिए उचित वातावरण तैयार कर रह है या नही, इन सबका प्रभाव बालक के अधिगम, इसकी मात्रा एवं इसकी गति पर पड़ता है। अध्‍यापक के शारीरिक एवं मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य का भी बालक के अधिगम से सीधा समबन्‍ध होता है। एक स्‍वस्‍थ शिक्षक ही सही ढंग से बच्‍चों को पढ़ा सकता है।
विषय-वस्‍तु से सम्‍बन्धित कारक: अधिगम की प्रक्रिया में यदि विषय बालक अनुकूल न हों तो इसका अधिगम पर भी प्रभाव पड़ता है। विषय-वस्‍तु बालक की रुचि के अनुकूल है या नहीं, उस विषय की प्रस्‍तुति किस ढंग से की गयी है, इन सब बातों को प्रभाव बालक के अधिगम पर पड़ता है।
प्रक्रिया से सम्‍बन्धित कारक: विषय-वस्‍तु को यदि सुव्यवस्थित तरीके से प्रस्‍तुत  नही किया जाए, तो  बालक को इसे समझने में कठिनाई होती है। सतत अभ्‍यास के द्वारा ही किसी विषय-वस्‍तु को पूर्णत: समझा जा सकता है, शिक्षण अधिगम सम्‍बन्‍धी परिस्थितियॉं एवं वातावरण बालक को ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है जिससे उसके अधिगम की गति स्‍वत: बढ़ जाती है।

अधिगम का महत्त्व:

अधिगम इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह बुद्धि और विकास में सहायक है, यह जीवन की आवश्यकतायों को समझने, वातावरण को अनुकूल बनाने, ज्ञान प्राप्त करने और हमें कुशल एव योग्य बनाने में सहायक है|

भाषा शिक्षण के सिद्धांत

भौतिक या आध्यात्मिक रूप से, हर कथन एक मूलभूत सच्चाई—एक सिद्धांत—का उदाहरण है और हर कथन नियमों के लिए आधार प्रदान करता है। लेकिन, नियम अल्पकालिक हो सकते हैं और वे सुनिश्‍चित होते हैं। दूसरी ओर, सिद्धांत व्यापक होते हैं और सर्वदा टिक सकते हैं।उदाहरण के लिए, एक बच्चे को शायद यह नियम दिया जाए, “स्टोव को नहीं छूना।” लेकिन एक वयस्क के लिए इतना कहना ही काफ़ी होगा कि “स्टोव गरम है।” ध्यान दीजिए कि आख़िरी कथन ज़्यादा व्यापक है। क्योंकि यह सच्चा कथन हमारे कार्यों पर असर डालेगा—इस मामले में अगर हम पकाएँ, सेकें, या स्टोव बंद करें—यह एक अर्थ में एक सिद्धांत बन जाता है।उसी प्रकार भाषा शिक्षण के कुछ प्रमुख सिद्धांत होते हैं, जिनसे सही एवं प्रभावी शिक्षण का आधार स्पष्ट होता है। सर्वप्रथम, यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि शिक्षण हेतु तीन तत्वों का होना अत्यावश्यक है - शिक्षक, शिक्षार्थी एवं पाठ्यक्रम(पठन सामग्री)। इन्ही तत्वों पर शिक्षण के सभी सिद्धांत आधारित हैं क्यूंकि शिक्षक शिक्षार्थी को पाठ्यक्रम कैसे, कब और क्यों पढ़ाये, जिससे प्रभावी शिक्षण हो सके, यही सब शिक्षण को सही दिशा प्रदान करते हैं।

सबसे पहले शिक्षण के कुछ सामान्य सिद्धांत हैं, जो शिक्षक को किसी भी प्रकार का पाठ पढ़ाते समय ध्यान रखने चाहिए।

  • रूचि जागृत करने का सिद्धांत - छात्र के लिए शिक्षण तब तक सफल नहीं हो पायेगा, जब तक वह उसमे रूचि नहीं लेगा। पहले दंड या अनुशासन के माध्यम से ज्ञानार्जन कि प्रेरणा दी जाती थी। किन्तु अब रूचि जागृत करने पर अधिक बल दिया जाता है, जिससे छात्र स्वेच्छा से, पूरा ध्यान केंद्रित कर शिक्षा ग्रहण करें। तभी वे पाठ्य वास्तु के सही उद्देश्य और मूल भाव को समझकर शिक्षण सफल बनाएंगे।
  • प्रेरणा का सिद्धांत - यह भाषा अधिगम हेतु सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है। रूचि, आवश्यकता और प्रयोजन शिक्षण में प्रमुख प्रेरक होते हैं। उद्देश्यहीन, प्रयोजन-रहित कार्य शिक्षण कार्य में शिथिलता उत्त्पन्न करते हैं। अतः हर संभव प्रयास द्वारा छात्रों को ज्ञानार्जन हेतु प्रेरित करना शिक्षक के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।
  • क्रिया द्वारा सिखाने (व्यावहारिक ज्ञानका सिद्धांत - यह शिक्षण हेतु सबसे प्रभावी सिद्धांत है, जो छात्रों में रूचि और प्रेरणा भी जागृत करता है। इसके अनुसार जो भी बालक को सिखाया जाए, उसे बालक एक निष्क्रिय श्रोता नहीं, अपितु सक्रीय प्रतिभागिता द्वारा पूर्ण ध्यान केंद्रित करते हुए सीखने का प्रयास करता है।

 मनोवैज्ञानिकों ने भाषा शिक्षण हेतु कुछ अन्य महत्वपूर्ण सिद्धांत भी दिए हैं, जो इस प्रकार हैं:

  1. अनुबंधन का सिद्धांत - बच्चों के भाषा विकास हेतु यह बहुत महत्वपूर्ण है कि सीखने में यदि प्रत्यक्ष किसी चीज़ का प्रयोग हो, तो शिक्षण का यह तरीका बहुत सरल और रुचिकर होगा। जैसे - दूध या पंखा को पुस्तकों की बजाय प्रत्यक्ष दिखाकर उसके बारे में सरलता से उसकी जानकारी दी जा सकती है।                                                                                                                 
  2. अनुकरण का सिद्धांत - वायगोत्स्की के अनुसार बच्चा सामजिक अंतःक्रिया द्वारा भाषा अर्जित करता है और सीखता है। यह प्रक्रिया सरल, सहज व् स्वाभाविक रूप से होती है।यदि उसके परिवार, समाज में कोई भाषा सम्बन्धी त्रुटि है, तो वह मातृभाषा के प्रभाव से बच्चे में भी आ जाती है।
  3. भाषा अर्जन का सिद्धांत - यह सिद्धांत मुख्यतः चॉम्स्की का दिया हुआ है। उनके अनुसार बच्चों में भाषा सीखने की जन्मजात क्षमता होती है। उन्होंने सार्वभौमिक व्याकरण का नियम बताते हुए बताया था कि बच्चे एक निश्चित समय में अनुकरण द्वारा भाषा नियम जानकर धीरे-धीरे सही वाक्य बनाना सीख जाते हैं और नए शब्द भी सीख जाते हैं।
  4. क्रियाशीलता का सिद्धांत - यह सिद्धांत भाषा प्रयोगों के अधिकाधिक अवसरों और सृजनात्मकता की ओर ध्यान देता है। इसके अनुसार कक्षा में परिचर्चा करना, प्रश्न पूछना आदि सहगामी क्रियायें बच्चों को सक्रीय, पठन के प्रति सजग, प्रोत्साहित और आनंदित रखती है। इससे भाषा शिक्षण बहुत सरल हो जाता है।
  5. अभ्यास का सिद्धांत - किसी भी चीज़ को सीखने के लिए अभ्यास सबसे महत्वपूर्ण होता है क्यूंकि उसी से वह हमारे व्यवहार में आती है और निपुणता भी आती है। भाषा प्रयोग के अधिकाधिक लिखित, मौखिक या वैचारिक अवसर मिलने से बच्चों का भाषा विकास सही प्रकार से होना संभव है।
  6. जीवन समन्वय (ज्ञात से अज्ञात) का सिद्धांत - यह वैज्ञानिकों द्वारा सर्वमान्य है कि बच्चे उन विषयों में बहुत रूचि लेते हैं, जो उन्हें अपने जीवन से सम्बंधित लगती है। अतः किसी विषय को बच्चों के जीवन से जोड़कर उदाहरण द्वारा सिखाने से बच्चे उसे पूर्ण रूचि और प्रतिभागिता से सीखने का प्रयास करेंगे।
  7. उद्देश्यपूर्ण शिक्षण का सिद्धांत - यह बहुत आवश्यक है कि शिक्षण से पूर्व शिक्षक एक निश्चित उद्देश्य को लेकर आगे बढ़े। इसी से सही पाठ्य सामग्री का चयन कर बच्चों को निश्चित समय में निर्धारित ज्ञान देने का प्रयास सफल हो सकता है। उद्देश्य व्यक्ति केंद्रित और समूह केन्दित कैसे भी हो सकते हैं - जैसे बच्चों कि श्रवण क्षमता का ज्ञान, काव्य पठन का कौशल आदि।
  8. विविधता का सिद्धांत - भारत एक बहुभाषिक देश है और शिक्षक को इस बहुभाषिकता को कठिनाई नहीं अपितु संसाधन के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए। विविधता प्रतिभा, शारीरिक क्षमता, विचारों के आधार पर भी हो सकती है। शिक्षक का कर्तव्य है कि वह सभी पक्षों को ध्यान में रखते हुए सही पठन सामग्री का चयन कर एक समावेशी कक्षा का आयोजन करने में समर्थ हो, जहाँ हर प्रकार के छात्रों को भाषा सीखने के सामान अवसर मिलें।
  9. अनुपात एवं क्रम का सिद्धांत - भाषा कौशल विशेषतः चार प्रकार के होते हैं - सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना। सही कौशलों का सही से क्रमबद्ध एवं साथ -साथ विकास होना बहुत आवश्यक है। एक कौशल में कमी हो, तो भाषा विकास अधूरा ही माना जाएगा। भाषा शिक्षण का मूल उद्देश्य छात्रों में सभी भाषा कौशलों में निपुणता हासिल करवाना है, जिससे वे भाषा का प्रभावी और संदर्भयुक्त प्रयोग कर सकें।
  10. बोलचाल का सिद्धांत - इसके अनुसार बातचीत के माध्यम से भाषा सरलता और स्थायी रूप से सीखी जाती है, जो लम्बे समय तक याद रहती है। यह भाषा के व्यावहारिक पक्ष पर केंद्रित है। सामजिक अंतःक्रिया द्वारा भाषा प्रयोग के सही सन्दर्भ में अधिकाधिक अवसर मिलते हैं और एक समृद्ध परिवेश की उपलब्धता होती है।
  11. चयन का सिद्धांत - भाषा शिक्षण हेतु यह सिद्धांत अति महत्वपूर्ण है। कक्षा में किस प्रकार के छात्रों को कब, क्या और कैसे पढ़ना है, इसमें सही विधि, समय, पठन सामग्री और विषय का चयन बहुत महत्त्व रखता है। शिक्षक को हर समय मूल्यांकन करते रहना चाहिए कि कौनसी विधि सही काम कर रही है और बच्चों की आवश्यकताओं के अनुसार सही दृश्य-श्रव्य सामग्री उपलब्ध है या नहीं।
  12. बाल केन्द्रितता का सिद्धांत - शिक्षक को यह समझना होगा कि शिक्षण के केंद्र में छात्र है। उसी के शिक्षण हेतु सभी प्रयास किये जा रहे हैं। इसलिए छात्र वर्ग की रूचि, उसका मानसिक स्तर, उसकी विशेष आवश्यकताओं, स्वभाव, विशेषताओं आदि का ज्ञान होना शिक्षण को सही दिशा प्रदान करता है। पठन सामग्री और विधि का चयन उसी आधार पर होना चाहिए।
  13. शिक्षण सूत्रों का सिद्धांत - भाषा की शिक्षा देने के लिए शिक्षक कई विधियां या सूत्र अपनाता है, जैसे - सरल से जटिल की ओर, विशेष से सामान्य की ओर, ज्ञात से अज्ञात की ओर, अंश से पूर्ण की ओर आदि। छात्रों की विविधता और आवश्यकताओं तथा चयनित विषय की गंभीरता को देखते हुए सही सूत्र का चयन बहुत महत्वपूर्ण रहता है।
  14. साहचर्य(संगति) का सिद्धांत - बच्चे सर्वप्रथम भाषा अपने परिवार और समाज अर्थात अपनी संगति से सीखते हैं। इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि बच्चों को भाषा सीखने के लिए एक समृद्ध भाषिक परिवेश मिले, जिससे अपने हर तरह भाषा का प्रयोग होते देख बच्चा सहज रूप से भाषा को अधिक सीखने लगेगा। और सही संगति से भाषा के मानक रूप को भी सीखने में सक्षम होगा। यह संगति व्यक्ति, वस्तु (चार्ट, पुस्तक) या पर्यावरण किसी भी प्रकार की हो सकती है।
  15. विभाजन का सिद्धांत - इसके अनुसार शिक्षक को ध्यान रखना चाहिए की चयनित पाठ को छोटे भागों में विभाजित कर बच्चों को एक-एक करके पढ़ाया जाए, जिससे बच्चे सरलता से उसे समझकर आगे बढ़ सकें। यह सिद्धांत सरल से जटिल के शिक्षण सूत्र को पोषित करता है।
  16. पुनरावृति का सिद्धांत - यह अभ्यास को सबसे महत्वपूर्ण मानते हुए शिक्षक को निर्देश देता है कि पढ़े गए पाठ या विषय की सही अंतराओं पर लिसिद्धांतखित-मौखिक परीक्षाओं या कक्षा सहगामी क्रियाओं द्वारा पुनरावृत्ति होते रहने से बच्चे का भाषा अधिगम अधिक सुदृढ़ होता है और उसके विचारों और ज्ञान में परिपक्वता भी आती है।
एक भाषा शिक्षक के रूप में आपका कर्तव्य होता है कि भाषा की शिक्षण प्रक्रिया को अधिक प्रभावी, रुचिकर बनाने हेतु तथा शिक्षार्थियों की अधिकाधिक प्रतिभागिता प्राप्त करने हेतु इन सभी सिद्धांतों को बहुत सही से प्रयोग में लाना चाहिए। ये सभी शिक्षण को सही दिशा प्रदान करने के साथ -साथ शिक्षण में आने वाली अपरिचित कठिनाइयों का हल ढूंढ़ने में भी शिक्षक के लिए बहुत सहायक सिद्ध हो सकते हैं। 

डॉ. जीन पियाजे के सम्पूर्ण अधिगम से संबंधित सिद्धांत

डॉ. जीन पियाजे ( 1896-1980 ) स्विस मनोवैज्ञानिक थे। वे मूल रूप से प्राणी शास्त्री थे, लेकिन उन्होंने मनोविज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण क...